Wednesday, 22 November 2017

आदिवासी संस्कृति -
आदिवासी संस्कृति को निम्नानुसार तीन परिदृश्यों में देखा जा सकता है :-

(I) देव मूलक संस्कृति

(II) प्रकृति मूलक संस्कृति

(III) पूर्वज मूलक संस्कृति

(I) देव मूलक संस्कृति

आदिम समाज अपने संस्कारों में प्रकृति में व्याप्त समस्त संसाधनों, चार-आचार, तरल-ठोस, जीव-निर्जीव सभी को देव या देवी का अंश मानता है ।

संस्कारों के देवता, आदिम गुरु पहांदी पारी कुपार लिंगों की मानव समाजिक संरचना में ७५० कुल गोत्र देव सगा घटक निर्धारित किया गया है ।

प्रत्येक ७५० कुल गोत्र देव सगा घटकों के लिए देव स्वरूप अलग-अलग कुलचिन्हों की मान्यता का व्यापक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार प्रत्येक कुल गोत्रज समुदाय के लिए कुल चिन्ह के रूप में एक पशु, एक पक्षी एवं एक वनस्पति (झाड़ या पौधे) का संरक्षण एवं संवर्धन आवश्यक माना गया है ।

प्रत्येक कुलचिन्हधारी गोत्रज के लोगों को अपने कुल चिन्हों (एक पशु, एक पक्षी एवं वनस्पति) को छोड़कर शेष सभी पशु, पक्षी एवं वनस्पति का सेवन या भक्षण करने का अधिकार है ।

इस तरह आदिम समुदाय के ७५० गोत्र धारक प्रत्येक गोत्र के ३ कुलचिन्हो के हिसाब से एक ओर प्रकृति के २,२५० पशु-पक्षी, जीव-जंतु, वनस्पति का संरक्षण भी करते हैं तथा दूसरी ओर भक्षक भी होते है ।

इस प्रकार प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए सांस्कारिक नियम का पालन करना अनिवार्य है ।

इस सांस्कारिक व्यवस्था अनुसार प्रत्येक कुल गोत्रज समुदाय अपने कुलचिन्हों का देव स्वरूप पूजा करता है

तथा उनका संरक्षण और संवर्धन भी ।

ऐसा नहीं करने वाला गंभीर सामाजिक अपराधी माना जाता है तथा सामाजिक दंड का भागी होता है ।

पुकराल में धरती के अलावा श्रृष्टि के संतुलन के लिए अनेक ग्रह, उपगृह, नक्षत्र एवं तारे आदि अपने-अपने पथ पर चलायमान हैं जो पूरी श्रृष्टि को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते हैं ।

इनका पुकराल में स्थाईत्व एवं संचलन प्रकृति के जीवन का आधार है,इनका प्रभाव सम्पूर्ण जीवमंडल पर पड़े बिना नहीं रहता ।

अतः सम्पूर्ण जीवजगत को प्रभावित करने वाले ग्रह, नक्षत्र, तारे, जल, थल, वायु, आकाश, अग्नि, वन तथा अपने पूर्वजों की आदिम समाज द्वारा देवी-देवता के रूप में निम्नानुसार पूजा विधान की महत्ता मिलती है :-

(१) बड़ादेव

सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय देव संस्कृति का ध्योतक है ।

आदिवासियों के देवों का मुखिया "बड़ादेव" है, वह श्रृष्टि रचयिता है, देवों का देव बड़ादेव है,वह निराकार एवं अजन्मा है,वह सर्वोच्च शक्ति है,वह तत्वों के उत्पत्तिकर्ता है,वह कण-कण में विराजमान है,उसका साक्षात्कार देवों से होता है,वह प्रकृति के सभी शक्तियों से बड़ा है ।

इस पुकराल एवं श्रृष्टि में बड़ादेव से बड़ा कोई देव/शक्ति नहीं हैं ।

गोंड आदिवासी समाज गोंडी में बड़ादेव को "सल्ले-गंगरा" शक्ति के नाम से स्तुति/सुमरन करता है, जिसका मतलब "धन एवं ऋण" शक्ति से है ।

इसी धनात्मक एवं ऋणात्मक शक्ति के जागृत/संयोग के कारण श्रृष्टि के स्वरुप का निर्माण हुआ तथा इसी शक्ति के कारण ही श्रृष्टि के समस्त संसाधनों का निर्माण, गृह-नक्षत्रों के संचलन की गति निर्धारित हुई ।

उदाहरण स्वरुप चुम्बक में समाहित धन एवं ऋण शक्ति को मान सकते हैं,चुम्बक के धन एवं ऋण शक्ति में आकर्षण एवं प्रतिकर्षण होता है,यही आकर्षण एवं प्रतिकर्षण शक्ति ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति है जो सम्पूर्ण पुकराल में व्याप्त है ।

इसे हम उत्पत्ति एवं विनाश की शक्ति भी कहते हैं ।

सल्ले-गंगरा की शक्ति पुकराल के समस्त भौतिक-अभौतिक, चर-अचर, जीव-निर्जीव, ठोस-तरल सभी में व्यापक रूप से विद्दमान है ।

सल्ले-गंगरा शक्ति अर्थात "धन एवं ऋण" शक्ति ही "नर एवं मादा"शक्तियां हैं, जिनके मातृत्व एवं पितृत्व गुणों से संतति उत्पन्न होते हैं ।

अर्थात उत्पत्ति की शक्ति ही सल्ले-गंगरा या बड़ादेव है ।

संसाधनों की उत्पत्ति एवं अंत तथा जीवों का जन्म एवं मृत्यु प्रकृति के चक्रण का नियम है, जिसे हम जीवन चक्र या विज्ञान की भाषा में पारिस्थितिकी अथवा पारिस्थितिकीतंत्र कहते हैं ।

अतः श्रृष्टि की उत्पत्ति एवं विनाश का स्वरुप तथा सम्पूर्ण पुकराल की अनंत धन एवं ऋण शक्ति अथवा पितृत्व एवं मातृत्व शक्ति का ध्योतक बड़ादेव है ।

(२) देव

पुकराल में गृह, नक्षत्र, चाँद, तारे आदि सल्ले-गंगरा (धन एवं ऋण) शक्ति के गुरुत्वाकर्षण के कारण यथा स्थान स्थापित हैं, जिसके कारण वे अनंतकाल से अस्तित्व में हैं और रहेंगे ।

गृहों में सूर्य सम्पूर्ण श्रृष्टि को ऊर्जा एवं शक्ति प्रदान करते हुए संयमित, संतुलित तथा दीर्घायु जीवन प्रदान करता है और चाँद सूर्य की तपन रुपी कष्टदायक परिस्थितियों के पश्चात शीतलता, जो श्रृष्टि के समस्त संसाधनों, जीवों की सुरक्षा और शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए बड़ादेव की शक्ति से स्थापित है ।

पुकराल में सूर्य, चाँद, तारे आदि आकाश में चलायमान तथा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर हैं ।

वे निर्जीव है तथा उनमे उत्पत्ति की शक्ति (स्त्रित्व एवं पुरुषत्व गुण) का अभाव है ।

उनकी तेज एवं शक्तिशाली ऊर्जा तथा शीतलता प्राकृतिक जीवन व्यवहार को नियमित रूप से परिवर्तित, संतुलित एवं निरंतरता प्रदान करती है ।

सुदूर स्थित होने के बावजूद उनकी तेजस्विता एवं प्राणी जीवन में पड़ने वाली प्राणदायिनी प्रभाव के कारण उन्हें पुरुष रूप में देव माना गया है ।

आदिवासियों द्वारा इनकी पूजा देवों के रूप में की जाती है ।

(३) माता

सल्ले-गांगरा शक्ति जीव-निर्जीव, तरल-ठोस, चार-आचार सभी में व्याप्त है ।

प्रकृति शक्ति बड़ादेव ने प्राणियों में आकर्षण की शक्ति लिंगभेद के रूप में पुरुषत्व (धन शक्ति) तथा स्त्रित्व (ऋण शक्ति) प्रदान की है ।

प्राणियों में केवल मातृ एवं पितृ शक्ति ही बड़ादेव का प्रकृति को दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है ।

इन्ही शक्तियों के मेल से जीव, निर्जीव, तरल एवं ठोस तत्वों की उत्पत्ति की निरंतरता के कारण श्रृष्टि का चक्रण होता है तथा अस्तित्व में है ।

अर्थात उत्पत्ति की शक्ति एवं मातृत्व का गुण जिसमे हो वह माता है ।

देव की अपेक्षा देवी (माता) संतति पैदा करने के साथ ही साथ पालन-पोषण, भोजन और सुरक्षा के अलावा देव की अपेक्षा मातृत्व के अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करती है ।

माता संतति के लिए दयालु है,इसीलिए प्रकृति की देवी "धरतीमाता" अपने संतति (प्राणियों) को आँचल रुपी हरी-भरी वन, शुद्ध वायु, जल, भोजन और सुरक्षा प्रदान कर प्राणियों के

जीवन को संवारती और संरक्षण करती है ।

धरती के गर्भ में विभिन्न रंगों कि मिट्टियाँ, विभिन्न रंगों की कीमती धातुएं,

जीवनोपयोगी शुद्ध जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है,मिट्टि के विभिन्न रंगों से हमारे घर आँगन निखरते है ।

इन प्राकृतिक रंगों में हमारा जीवन संस्कार झलकता है ।

उसी प्रकार बहुमूल्य तत्वों/पदार्थों/धातुओं के बगैर हमारे आदिम संस्कार अधूरे हैं ।

आदिम समाज इन बहुरंगी, कीमती धातुओं को बेचने के लिए नहीं बल्कि सांस्कारिक श्रृंगार के लिए इनका उपयोग करता था. आज परिवर्तनशील विकासवादी, स्वार्थी आधुनिक समाज ने इनकी उपयोगिता ही बदल दी है ।

धरती के गर्भ से निकालने के लिए वहां की वन संपदा, पहाड़, पर्वत, जलस्त्रोत आदि को नष्ट किया जा रहा है तथा क्रूरतापूर्वक इन्हें निकाल कर भू-गर्भ (धरती) को चरम सीमा तक क्षत-विक्षत कर रहा है ।

आज प्राकृतिक विनाशकारी तरीके से इन्हें निकालने और जमीन की उर्वरा शक्ति, वन संपदा को नष्ट करने का पाप कृत्य किया जा रहा है ।

इसका परिणाम (पाप का फल) हमें अवश्य मिलना शुरू हो गया है, जो ग्लोबल वार्मिग के रूप में पूरा संसार भुगत रहा है ।

संतति (मनुष्य) द्वारा धन-संपत्ति की प्राप्ति एवं स्वार्थपूर्ण विकास की अंधी दौड में शामिल होकर किए जाने वाले पाप (प्रकृति के स्वरुप एवं संतुलन बिगाड़ना/नष्ट करना सबसे बड़ा पाप) की सीमा चरम पर आ चुकी है ।

इस पाप के कारण श्रृष्टि स्वयं को संतुलित करने के लिए अपने विनाशकारी रौद्र स्वरुप को कई रूपों में प्रकट करना शुरू कर चुकी है, जिसका अंतिम परिणाम प्रकृति को नए स्वरुप में परिवर्तित करना ही हो सकता है ।

धरती, जल, वन को आदिवासियों द्वारा माता के रूप में प्रथम सुमरण/पूजा किया जाता है ।

घर पर माता-पिता (संतति के उत्पत्तिकर्ता) की पूजा के पहले वन एवं वनचरों की पूजा बाहरवासी के रूप में घर से बाहर किसी स्थान में की जाती है ।

इसका उद्देश्य यह है कि मनुष्य का आदिम जीवन संस्कार पूर्ण रूप से प्रकृति के वनसंपदा, खनिजसंपदा, जीव-जंतुओं, मिट्टी के रंग, पहाड़, पर्वत, नदी, झरने अदि पर निर्भर रहा है ।

इसीलिए इनका वह सम्मानपूर्वक सुमरण/पूजा करता है,

ताकि घर में रहने या घर से बाहर राह चलते या जंगल में रहने या किसी भी कार्य/परिस्थितियों में रहने पर वनों में रहने वाले जीव-जंतुओं तथा प्राकृतिक प्रकोप से मानव समाज की रक्षा हो ।

जिस प्रकार माता अपने बच्चों का लालन-पालन एवं समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती करते हुए सुरक्षा भी करती है,

उसी प्रकार जल, थल, नभ एवं वन जीवों के जीवन की रक्षा एवं समस्त आवश्यक्ताओं की पूर्तिकर्ता जल, थल एवं वन होती हैं ।

अतः जल, थल, नभ, वनचरों के लिए जल, थल, वन, नभ एवं पवन दसेरी (दसो दिशाओं में व्याप्त हवा, प्राणवायु) माता के सामान हैं ।

इसीलिए आदिम मानव समुदाय द्वारा माता के रूप में जल, थल, वन, नभ एवं पवन दसेरी की प्रथम पूजा की जाती है, उसके पश्चात पूर्वजों की ।

इस श्रृष्टि के निर्माण तथा जीवनकाल की सम्पूर्णता प्रदान करने वाले जीवनतत्वों (जल, थल, अग्नि, वायु एवं आकाश) का प्राकृतिक विधानपूर्वक पूजा करना आदिवासीजनों का परम धर्म है ।

इन पूजा विधानों में प्रकृति, मौसम, रंग, वन, जीव, जल, थल, नभ, अग्नि, वायु संगत विभिन्न जीवन मन्त्रों का जाप (सुमिरन) किया जाता है ।

यही सुमिरन जीवनतत्वों को आकर्षित करने या सम्मानित करने का मुख्य विधान है, इस विधान से रोग-दोष से भी मुक्ति पाया जाता है ।

प्रकृति, देव-माता सुमिरन (पूजा) विधान से आदिवासियों में संकट, जीव-जंतु, मौसम, रंग, जल, थल, नभ, अग्नि, वायु, गृह-नक्षत्र वशीकरण आदि का ज्ञान धर्मार्थ एवं लोकहित में अभी भी जीवित हैं ।

यह अभिन्न ज्ञान सभी आदिवासीजनों में नहीं पाया जाता, बल्कि प्रकृति से व्यक्ति के स्वभाव के साथ अंतर्मन में स्वमेव विकसित होती है ।

इस ज्ञान की परम्परा गुरु परम्परा में प्रचलित है, जिसका संवाहक दल विशष्ट जीवनशैली का निर्वहन करता है ।

इसका अप्रत्यक्ष प्रयोग, पंचतत्व यौगिक संरचना एवं गुणों में सुधार के माध्यम से जनकल्याण के लिए किया जाता है ।

इस अंतर्ज्ञान को एहसास करने का ज्ञान, विज्ञान के पास भी नहीं है ।

यह ज्ञान विज्ञान से परे है, सीमा से बाहर है, इसीलिए इसे "पराविज्ञान" कहा जाता है ।

विज्ञान के द्वरा बनाए गए मिसाईलों का निशाना चूक सकता है, लेकिन पराविज्ञान की मिसाईलों का निशाना श्रृष्टि के किसी भी कोने के लिए अचूक है ।

विज्ञान का एक लाख परमाणु भी पराविज्ञान के एक अणु के बराबर नहीं है,इसकी प्रयोगशाला विज्ञान की प्रयोगशाला नहीं है,इस श्रृष्टि में पराविज्ञानी जहां कदम रखता है वहीँ उसका प्रयोगशाला बन जाता है ।

अर्थात श्रृष्टि का प्रत्येक कोना उसकी प्रयोगशाला है. इस ज्ञान का अंतिम अप्रत्यक्ष प्रयोग ही अंत है ।

(४) महादेव

आदिम संस्कारों में महादेव के मान मर्यादा का स्थान ऊर्ध्व स्थिति में बड़ादेव और बूढ़ादेव के मध्य रखा गया है ।

आदिम साहित्यों में उल्लेख मिलता है कि धरती पर मानव समाज/कुल/कुटुंब बना एवं वंश विस्तार हुआ, तब सयुंगार द्वीप अर्थात पंचखण्ड धरती या पांच खण्ड के महाद्वीप (गोंडवाना लैण्ड) के महामानव समाज के मुखिया/राजा शंभूसेक/शंभू मा दाव (महादेव) हुए ।

पांच महाद्वीपों का समूह, सयुंगार द्वीप (गोंडवाना लैण्ड) के मुखिया/राजा अर्थात पांच महाइंद्रियों के स्वामी अर्थात धरती के स्वामी के रूप में शंभू-मा-दाव का कालान्तर में शंभू महादेव नाम प्रयुक्त हुआ ।

इस धरती पर ८८ पीढ़ी शंभू मा दावों (महादेवों) की हुई ।

प्रथम पीढ़ी में शंभू-मूला, मध्य पीढ़ी में शंभू-गवरा एवं अंतिम पीढ़ी में शंभू-पार्वती (हिन्दु धार्मिक ग्रंथों के अनुसार "शंकर-पार्वती") हुए ।

गोंडवाना के सभी ८८ शंभूओं की पीढ़ी में शंभू-गवरा सर्वाधिक पसिद्ध हुआ ।

इनके अलावा इन पीढ़ियों में शंभू-रैय्या, शंभू-तुलसा, शंभू-अनादि, शंभू-ठम्मा, शंभू-बेला, शंभू-सति, शंभू-उमा आदि अनेक नाम मिलते है ।

इस गोंडवाना गणराज्य में इन ८८ शंभू महादेवों (राजाओं) का लगभग १०,००० वर्ष का काल बताया गया है ।

शंभू महादेवों के इस काल में सम्पूर्ण श्रृष्टि (जल, थल, अग्नि, वायु, आकाश) के सात्विक एवं तात्विक तथा श्रृष्टि की गोद में उत्पन्न समस्त जीवों एवं वनस्पतियों के जैविक एवं व्यावहारिक गुणों का ज्ञान प्राप्त कर लिया गया था, जिसके आधार पर श्रृष्टि के कालचक्र के समयानुकूल जीवों, वनस्पतियों एवं मानव के साथ व्यवहारिक जीवन का पारिस्थितिकीय संबंधसूत्र स्थापित किया गया ।

मानव के व्यवहारिक जीवन के साथ प्रकृति के पंचतत्वों, जीवों, वनस्पतियों का प्राकृतिक एवं मानवीय महत्ता तथा उपयोगिता के आधार पर उन्हें जीवन संस्कारों में स्थान दिया गया ।

यह काल मानव संस्कृति के अनुसंधान, अध्ययन एवं निर्माण का चरमकाल माना जाता है, जिसके आधार पर मानव समाज को सामाजिक, सांस्कारिक, समृद्ध एवं श्रृष्टि के समान दीर्घजीवन जीने के लिए मूल स्वरूप प्रदान किया गया ।

इस तरह सम्पूर्ण मानव समाज को श्रृष्टि के साथ समस्त सामाजिक, सांस्कारिक अंगों से समन्वय स्थापित करते हुए जीवन जीने का ज्ञान दिया गया, जिसके कारण "मानुष", मनुष्य कहलाया. इसीलिए गोंड आदिवासी समाज विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, सांस्कारिक कार्यों के संचलन के पूर्व अपने पूर्वज, देवी-देवताओं, शंभूओं की जोड़ी को अरुंग अरुंग शंभू/हर-हर महादेव कहकर स्तुति करते हैं ।

जीवन में सुख समृद्धि एवं सुरक्षा के लिए अथवा शुभ एवं धार्मिक कार्यों की शुरुवात तथा संचलन की निरंतरता और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए अरुंग अरुंग शंभू/हर-हर महादेव (सभी ८८ शंभूओं की जय हो) कहकर स्तुति करते हैं ।

शंभू-पार्वती के अंतिम काल में ही गोंडवाना की धरा पर घुमंतू मानव जाति, आर्यों (युरेशियनो) का आगमन हुआ. उनके साथ स्त्रियाँ नहीं थी ।

वे पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवनशैली के संवाहक कदापि नहीं थे ।

(५) बूढ़ादेव

देखने और सुनने में आता है कि आदिवासीजन बड़ादेव और बूढ़ादेव को एक ही देव मान लेते हैं ।

बड़ादेव और बूढ़ादेव के ज्ञान, मान्यता और महत्ता में में बहुत बड़ा फर्क है ।

मानव में एक ही अंग की कमी/फर्क के कारण समाज उसे पुरष नहीं मानता. उसी प्रकार बड़ादेव और बूढ़ादेव के स्थायित्व, सांस्कारिक और अध्यात्मिक दर्शन में बहुत बड़ा फर्क है ।

बड़ादेव के संबंध में पूर्व में उल्ले किया जा चुका है ।

बड़ादेव आदि और अनंतशक्ति का ध्योतक है, जिसकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है,वह निराकार, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापी है,वह पुकराल/श्रृष्टि के रचयिता है,वह कण-कण में विराजमान है ।

देव-देवियों, पुकराल/श्रृष्टि एवं शरीर के प्रत्येक कण के अंश में बड़ादेव की शक्ति व्याप्त है ।

बड़ादेव से बड़ा और कोई देव/ईश्वर नहीं है ।

हमें बड़ादेव और बूढ़ादेव में अंतर को समझना होगा, अन्यथा हम अपने आने वाली पीढ़ी को इनकी संरचना/स्थायित्व, सांस्कारिक महत्व और अध्यात्मिक दर्शन का हस्तान्तरण नहीं कर पायेंगे ।

आदिवासियों की परम्परा अनुसार बूढ़ादेव सभी गोत्रज/कुल/पुरखा/कुनबा का देव है ।

इसे प्रतीक के रूप में सिर्फ साजा झाड़ के मूल में स्थापित किया जाता है ।

सवाल अब यह भी उठता है कि इसे साजा झाड़ में ही स्थापित क्यों किया जाता है, अन्य झाड़ों में क्यों नहीं ?

इसे घर में क्यों स्थापित नहीं किया जाता ?

उपरोक्त के संबंध में समाज की प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दर्शनों की मान्यता है कि साजा का झाड़ तूफान, बारिस, भूमि कटाव की स्थिति में भी उसके जड़ अतिमजबूती से जमीन को जकड़े रखते हैं, जो उसकी हर कठियाईयों की स्थिति में भी अडिगता और ठहराव की निशानी है ।

इसके मोटे, बड़े आकार के पत्ते धूप और बारिस से भी जमीन का संरक्षण करते हैं ।

इसके फल दुनिया के नक्शे की बनाई गई अंडाकार द्वीध्रुवीय आकृति के समान दिखाई देता है ।

इस फल में ऊर्ध्वाकार पांच पोर (धारियां) विकसित होते हैं,इन पांच पोरों (धारियों) की बनावट और संख्या में श्रृष्टि के पंचतत्व, गोंडवाना के पांच खण्ड भू-भाग के सत्व-तत्व का दर्शन मिलता है, जो श्रृष्टि की उत्पत्ति, जीवनचक्रण एवं जैविकीय पारिस्थितिकी के लिए पूर्ण है ।

इसीलिए इसे साजा झाड़ के मूल में स्थापित किया जाता है ।

वर्तमान में वनों के विनाश और साजा झाड़ की उपलब्धता की कमी के कारण महुआ आदि

झाड़ों में भी स्थापित किए जाते हैं ।

दूसरी मान्यता यह है कि इसे आदिवासीजन घर पर ही स्थापित कर विधानपूर्वक पूजा करते थे, उसे भोग चढाते थे ।

देवताओं के भोग और परिवार के लिए भोजन आज भी घर की मातृशक्तियाँ ही तैयार करती हैं ।

तैयार भोजन सबसे पहले देवताओं को अर्पित किया जाता है ।

एक बार बूढ़ादेव के पूजा के दिन खाना बनाने वाली मातृशक्ति की ऋतुचक्र (मासिक चक्र) शुरू हो गया,उन्हें इस समयावधि का ध्यान ही नहीं रहा,भोजन बन चुका था ।

अब भोग लगाया जाता उसके पहले बूढ़ादेव को इस तथ्य का अंतर्ज्ञान हो जाने के कारण वे भोग के कार्य से लोगों का ध्यान हटाने के लिए घर से बाहर चले गए ।

लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि बूढ़ादेव घर से बहार क्यों चले गए,परिवार, कुल, कुनबा के लोगों ने उन्हें समझाने का प्रयास किया, किन्तु अंततः वे घर वापस नहीं आए और पास में स्थित साजा झाड़ के नीचे बैठकर लोगों को श्रृष्टि में "अंश श्रृजन" की पूर्व प्रक्रिया (मातृशक्ति के ऋतु परिवर्तन की मानव सांस्कारिक जीवन में महत्ता)/घटनाचक्र पर सार्थक उपदेश दिया ।

तभी से बूढ़ादेव को घर के बाहर साजा झाड़ के नीचे ही भोग लगाया जाता है ।

इस घटना और उनके उपदेशों के पश्चात बूढ़ादेव के भोग तथा कुनबा को खाना खिलाने के लिए पुरुष ही खाना बनाते हैं, मातृशक्तियाँ नहीं ।

आज भी गोंड आदिवासी समाज में मातृशक्तियाँ ऋतु परिवर्तन की समयावधि तक भोजन नहीं बनातीं. रसोई और पेन-ठाना में भी प्रवेश नहीं करतीं ।

मातृशक्तियों में ऋतु परिवर्तन की प्रक्रिया ३-५ दिन में पूरी होती है. इस अवधि में घर के पुरुष सदस्य या दूसरे सदस्य खाना बनाते हैं ।

इस अवधि तक परिवार के प्रधान सदस्य किसी दूसरे कुनबे या परिवार के शुभ कार्यों में शामिल नहीं होते. इस अवधि में ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है ।

गोत्र सगावार कुलदेव बूढ़ादेव की स्थापना के पूर्व निश्चित स्थान पर विधानपूर्वक साजा का पौधा रोपण किया जाता है

या प्राकृतिक रूप से विकसित पौधे को चिन्हांकित कर लिया जाता है ।

उसके पश्चात धार्मिक विधि-विधान से बूढ़ादेव को स्थापित किया जाता है,बूढ़ादेव स्थापित साजा के झाड़/पेड़ को किसी भी रूप नुकसान पहुँचाना या काटना पूर्णरूप से वर्जित होता है ।

यदि कोई जानबूझ उसे नुकसान पहुचाता है या काटता है तो उसे जीवन में भारी कलह का सामना पड़ता है,आज भी इस बात की सत्यता को झुठलाया नहीं जा सकता ।

आदिवासीजनों की मान्यता है कि इस देव परम्परा/संस्कृति में बूढ़ादेव उनके कुल-गोत्र/कुनबा का पहला व्यक्ति है

जो, बूढ़ा होकर अपना भौतिक देह त्याग चुका है ।

उसकी जीवात्मा को अपने कुल/कुनबा/पूर्वज/देव के रूप में साजा के झाड़ के मूल में स्थापित कर दिया गया ।

उस पहले व्यक्ति से लेकर अब तक अपने भौतिक स्वरुप को त्यागने वाले कुल/कुटुंब/परिवार के पत्येक सदस्य की जीवात्मा को धार्मिक विधि-विधानपूर्वक स्थापित कर दिए गए हैं एवं यह निरंतरता अनंतकाल तक चलती रहेगी ।

गोंड आदिवासियों के कुल-गोत्र/कुनबा/कुटुंबवार अलग-अलग बूढ़ादेव स्थापित किए जाते हैं, किन्तु पूजा विधान समान होता है ।

गोत्र एवं देव सगा संख्या अनुसार पितृ आत्माओं को भोग दिए जाने हेतु साजा के पत्तों में हिस्से रखकर उन्हें सुमिरन करते हुए सभी हिस्सों से ५-५ निवाले अर्पित किए जाते है ।

इस देव सगा संख्या के आधार पर गोत्र अनुसार परिवार को अपने ही गोत्र/कुल/कुटुंब के अन्य स्थान पर रहने वाले परिवार/कुल-गोत्र/सगा के बूढ़ादेव में अपने पूर्वजों को शामिल कर सकता है, बशर्ते वह उसी कुल-गोत्र/देवसंख्या का सगा हो ।

जैसे- परतेती गोत्र का पांच देव सगा दुनिया के किसी अन्य स्थान में रहने वाले परतेती गोत्र वाले पांच देव सगा के बड़ादेव पेनठाना में शामिल होकर अपने परिवार के पूर्वजों को विधानपूर्वक शामिल कर सकता है ।

पूर्व के देवगढ़, गढ़ियों में सीमित परिवार होने से लोग एक साथ बूढ़ादेव की पूजा करते थे. कालान्तर में परिवारों की संख्या में विस्तार होकर दूर-दराज, अलग-अलग गावों, कस्बों में व्यवस्थित होने के कारण अपनी सुविधानुसार अपने गाँव तथा परिवार के वरिष्ठतम सदस्य वाले कुनबे के गावों में बूढ़ादेव स्थापित कर लिए ।

सुविधानुसार उसी कुल/परिवार के वरिष्ठतम सदस्य को विधानपूर्वक बूढ़ादेव स्थापित करने की पात्रता होती है ।

बूढ़ादेव की पूजा कार्य के लिए पूजा-पद्धति के जानकार उसी कुल/कुनबा/परिवार के व्यक्ति को पुजारी का पदभार दिया जाता है तथा पूजा का कार्य सम्पन कराया जाता है ।

इस कार्य के लिए कुल का पूरा परिवार सहयोग करता है ।

(६) भगवान

गोंड आदिवासी समाज बड़ादेव को "सल्ले" मातृशक्ति एवं "गंगरा" को पितृशक्ति के रूप में मानता है ।

इस आधार पर मातृशक्ति-पितृशक्ति अर्थात माता-पिता या उत्पत्तिकर्ता या पैदा करने वाला बड़ादेव है ।

चूंकि जीव के माता-पिता संतान पैदा करते हैं और संतान योनि से पैदा होते हैं,

इसलिए संतान के लिए माता-पिता ही भगवान हैं ।

आदिवासी अपने माता-पिता की आत्मा को अपने घर में भगवान के रूप में स्थापित कर उनकी पूजा करता है ।

परिवार के द्वारा प्रतिदिन ग्रहण किए जाने वाले भोजन का प्रथम भोग उन्हें अर्पित करता है, उसके पश्चात ही वह स्वयं ग्रहण करता है,इसलिए आदिवासी समुदाय के लिए भगवान का और कोई स्वरूप नहीं है ।

दूसरे शब्दों में भगवान का अर्थ हर व्यक्ति जानता है- भग + वान = भगवान. भग अर्थात योनि, वान अर्थात चलाने वाला या निरंतरता बनाए रखने वाला या योनि से संतति उत्पन्न करने की शक्ति को बनाए रखने वाला "भगवान" है ।

इस तथ्य से माता-पिता ही भगवान हुए ।

सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय यह मानता है कि बड़ादेव द्वारा बनाए हुए प्रकृति के समस्त तत्व/संसाधन/जीव (गृह, नक्षत्र, जल, थल, नभ, वायु, अग्नि, चर-अचर, जीव-निर्जीव) प्राणीजीवन के अंग हैं, जीवनोपयोगी हैं ।

इसीलिए देव/देवी के रूप में माने जाते हैं तथा श्रृद्धाभाव से यथास्थान पूजा की जाती है ।

(७) माता-पिता (परिवार के देवी-देवता)

परिवार के देवी और देवता के रूप में अपने पूर्वजों की जीवात्मा को स्थापित करने का रिवाज गोंड आदिवसी समाज की मूल परंपरा है ।

परिवार के माता-पिता (देवी-देवता) को घर के अंदर, जहां परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों का कम आना-जाना हो, ऐसे पृथक एवं छोटे कमरे में स्थापित किया जाता है ।

देवालय (पेन ठाना) कक्ष परिवार के मुखिया (दादा, परदादा, बड़े पिता, बड़े भाई) किसी एक के घर में स्थापित होता है ।

माता-पिता का जैसा व्यवहार होता है, वही व्यवहार हमारे पूर्वज देवी-देवताओं द्वारा हमारे साथ किया जाता है ।

जिस तरह माता-पिता प्रत्यक्ष रूप में सम्पूर्ण परिवार की रक्षा करते हैं, उसी तरह भौतिक देह को त्यागने के पश्चात भी उनकी जीवात्मा माता-पिता के स्वरुप में अप्रत्यक्ष रूप से परिवार की रक्षा करते हैं ।

वे ही परिवार के पूर्वज माता-पिता हैं ।

माता-पिता (पूर्वज देवी-देवता) के साथ और भी देवी-देवताओं की स्थापना घर में की जाती है, जो हमारे जीवन में उपयोगी हैं ।

जैसे- बूढ़ीदाई, अन्न दाई (अन्नपूर्णा), पंडा-पंडिन (रोग-दोष/कलह-बाधाओं का निराकरण/दूर करने वाले), दुल्हा-दुलही देव (विवाह संस्कार के देव), सगा-सेरमी (परिवार के बाल-बच्चों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए जाने वाले सगा देव/विवाह सांस्कारिक संबंध के देव), मुख्य द्वार पर स्थापित नारायण देव, गौशाला में सांड-सांडीन आदि घर-आँगन, गौशाला के देवी-देवता है ।

इसी प्रकार खेत-खलिहान में भी ग्राम देवताओं के स्वरुप विद्दमान होते हैं, जिनकी पूजा खलिहान कार्य के अंत में किया जाते हैं ।

गोत्रवार देवों की संख्या की मान्यता परिवार/कुनबा/कुटुंब का अहम हिस्सा है ।

गोंडी पुनेमी मुठवा (गोंडी घर्म गुरु) पहांदी पारी कुपार लिंगों द्वारा गोंड समुदाय को

१२ सगा घटकों में विभाजित किया गया है ।

गोत्रवार १२ सगा घटक (१ से लेकर १२ देव संख्या) गोंड समुदाय के विभिन्न गोत्र/कुल चिन्ह वाले १२ समूह हैं ।

सगा देव संख्या १ से ७ देव सगा गोत्र समूहों के प्रत्येक समूह में १००-१०० गोत्र निर्धारित हैं तथा शेष ८ से १२ देव सगा गोत्र वाले प्रत्येक समूह में १०-१० गोत्र निर्धारित हैं ।

इस तरह प्रथम १ से ७ देव मानने वाले सगाओं के समूहों में ७०० गोत्र तथा शेष ८ से १२ देव मानने वाले सगा समूहों में ५० गोत्र निर्धारित हैं ।

इस प्रकार गोंड आदिवासी देव सगा गोत्र संख्या ७५० हुए. इस देव सगा गोत्र संख्या को सल्ले-गांगरा के प्रतीक के मूल में स्थापित किया गया है, जिसे गोंड आदिवासी समाज शुभांक मानता है तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति हेतु इस अंक की देव प्रतीक के रूप में पूजा करता है ।

यह सम-विषम देव सगा गोत्र व्यवस्था गोंड आदिवासी परिवार एवं समाज में पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत किए जाने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक कर्तव्यों के निर्वहन की जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है ।

(II) प्रकृति मूलक संस्कृति

श्रृष्टि में प्राणियों का साक्षात्कार सर्वप्रथम प्रकृति से हुआ ।

तब प्राणियों को सर्वप्रथम आवश्यकता आहार की हुई एवं उसे पहचाना,प्रकृति के समस्त प्राणी आहार के लिए पेड़-पौधे, फूल-फल, पत्ते तथा दूसरे प्राणियों पर निर्भर हो गए. एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी का भक्षण किया जाना उसकी शारीरिक शक्ति/क्षमता/आकार पर निर्भर करने लगा ।

उसी प्रकार मनुष्य भी प्राणियों के व्यवहार को समाहित कर लिया,प्राणियों में केवल मनुष्य अपने बौद्धिक विकास की अलौकिकता के कारण व्यवहार को जानने हेतु सोचने, समझने और वाणी में उद्घृत करने का तंत्र विकसित कर लिया एवं इस बौद्धिक विकास के क्रम में उसने अपने एवं समूह की सुरक्षा के लिए सुरक्षा साधनों का विकास किया ।

मनुष्य का यही बौद्धिक विकासक्रम कालान्तर में उसे पशुता से मनुष्यता में स्थापित कर दिया ।

अब मनुष्यों के समूह की जीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ती समूह के सदस्यों द्वारा किया जाने लगा. समूह के आधार पर संसाधनों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधन उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गए, जिनके बगैर मनुष्य आर भी अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता ।

अच्छाई और बुराई की समझ उसकी संतति की उत्पत्ति और सुरक्षा से प्रारम्भ हुई,संतति की सुरक्षा का एहसास एवं समझ किसी में कम किसी में ज्यादा, प्राणियों में जन्मजात है ।

प्राणी प्रकृति प्रदत्त अपनी शारीरिक बनावट, क्षमता, आकार, रंग एवं बौद्धिक कुशलता से प्रकृति में घटित होने वाली घटनाओं से स्वयं एवं अपने समूह की रक्षा करता है ।

अपने जीवन में आदिवासी समय-समय पर प्रकृति एवं प्राणियों के परिवर्तित जीवन स्वरूपों को

अमूल्य धरोहर "संस्कृति" के रूप में समाहित किया है ।

आदिकाल से आदिवासियों के ग्रामीण जीवन में झांक कर देखें तो यह तथ्य साबित हो जाता है कि वास्तव में उसका जीवन प्रकृति से कितना जुड़ा है ।

अर्थात प्रकृति के बिना मानव तो क्या समस्त चर-अचरों का जीवन ही नहीं है,आदिम समाज प्राकृतिक आध्यात्म के दर्शन को देवी-देवताओं के रूप में अपनाता है और अपने जीवन की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए प्रकृति की पूजा करता है ।

इसीलिए आदिम समाज के पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कारिक एवं आध्यात्मिक मूल में प्रकृति पूजा का विधान मिलता है, जिसके कारण वह प्रकृति पूजक कहलाता है ।

ग्राम जीवन में प्रकृति प्रेम एवं पूजा का निम्नानुसार स्वरुप दिखाई देता है :-

(१) खेरमाई (ग्राम समुदाय की माता)

सबसे प्रथम आदिम मानव समुदाय ने धीरे-धीरे समूह में रहने का तंत्र विकसित किया ।

समूह में रहने का महत्व एवं लाभ को जाना और आज भी वह समूह में ही रहना पसंद करता है ।

आदिम मानव समाज के इन्ही समूहों में रहने के स्थानों को गावँ या ग्राम कहा गया है,ग्राम यूँ ही नहीं बस गए. गावों को बसाने वाले समुदाय के प्रथम मुखियाओं द्वारा इन गाँवों को विधानपूर्वक बसाने के अनेक प्राकृतिक प्रतीक जीवित हैं, जिनकी मान्यताएं आधुनक काल में भी प्रचलन में हैं ।

आदिम मानव समुदाय ही नहीं आधुनिक समाज भी इन प्राचीन विधानों का अनेक एवं परिवर्तित स्वरूपों में अनुसरण करता हुआ दिखाई देता है ।

गावों को बनाने/बसाने के पूर्व वहाँ की मिट्टी, वायु, जल का परीक्षण, जल एवं कृषि भूमि की उपलब्धता, आवास बनाने हेतु प्राकृतिक संसाधन, पशुओं के लिए आवश्यक चारागाह की उपलब्धता आदि का ध्यान रखा जाता था ताकि जीवन उपयोगी संसाधनों की आवश्यकता अनुसार सतत पूर्ति हो सके ।

इन गाँवों, स्थानों, घरों को बसाने/बनाने के पूर्व पूजा-विधानों के कार्यों को किए जाने का मुख्य आधार यही होता है कि वहाँ बसने वाले मानव समुदाय सुख-शान्ति और समृद्धिपूर्ण जीवन निर्वाह करे ।

आदिम मानव समुदाय द्वारा ग्राम/गाँव बसाए जाने के पूर्व भविष्य के परिस्थितयों का आकलन करते हुए वर्तमान ही नहीं अपनी आने वाली पीढ़ी की सुख और समृद्धि को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक आध्यात्म और मान्यता अनुसार ग्राम देवी-देवताओं की स्थापना की जाती रही है ।

इन देवी-देवताओं की स्थापना ग्राम जीवन की महत्ता, कार्यों की सफलता, प्राकृतिक आपदाओं से ग्राम की सुरक्षा, फसल, पशु, मानव समुदाय व ग्राम की सुरक्षा आदि के उद्देश्य से ग्राम प्रमुखों,

परिवार प्रमुखों के द्वारा उपवास रखकर की जाती है ।

आदिम समुदाय की प्राचीन सामुदायिक जीवन मातृप्रधान होने के कारण समूह की प्रथम माता जंगो रायतार दाई (समूह की रक्षा सहने वाली माता), माता कली कंकाली के रूप में मिलती है,

जिनकी भावी सांस्कारिक मानव समाज के निर्माण में अहम भूमिका मिलती है ।

शंभू काल की इन पूर्वज मानववंश की माताओं की महिमा अपार और अनंत है ।

इनकी महिमाओं का बखान करने की शक्ति/क्षमता गोंडवाना संदेश की लेखनी में नहीं है ।

गोंडवाना के अनेक महान साहित्यकारों ने इन माताओं की जीवन-गाथा के बारे में गोंडवाना साहित्यों में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ।

किन्तु यहाँ अनादिकाल के पराविज्ञानी पितृ एवं मातृशक्ति (नांगा बैगा-नांगा बैगिन) धरती पुत्र भूरा भगत और धरती पुत्री माता कोतमा के ७ पुत्रों और ५ पुत्रियों के द्वारा समाज सेवा की भूमिका के संबंध में यथा स्थान सक्षम स्तर से जानकारी रखी जा रही है ।

इन भाई बहनों में सबसे छोटी बहन अर्थात ग्राम समाज की माता "खेरमाई/खेरोमाई" है ।

कहा जाता है कि भूई पुत्र भूरा भगत और भूई भोज की पुत्री माता कोतमा (नांगा बैगा-नांगा बैगिन) के ७ पराक्रमीपुत्रो में से जेष्ठ पुत्र "कुंआरा भिमाल" हुए ।

उनमें समाज रचना, श्रृजन एवं ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा, पराविज्ञान की प्रतिभा और अकूत ताकत (बल) था ।

इसलिए वे हमेशा समाज की भलाई के लिए श्रृजन एवं पराविज्ञान की खोज में ही लगे रहते थे ।

पराविज्ञानी होने के कारण वे गावँ-गावँ जाकर सामुदा/समाज की सुख, शान्ति और समृद्धि के लिए पराविज्ञान का उपयोग कर जिस-जिस गाँव में जाते थे, वहीँ देव ठाना-बाना स्थापित किया करते थे ।

इस सामाजिक कार्य में अतिरुचि एवं उत्साह के कारण वे घर से निकल कर एक गाँव से दूसरे गाँव, दूसरे गाँव से तीसरे ...... और अंत तक वे घर वापस नहीं आए ।

कुंआरा भिमाल के घर वापस नहीं लौटने पर माता-पिता अति चिंतित होकर उनके सभी ६ भाईयों को उन्हें ढूँढकर वापस घर लाने के लिए भेज दिए और यह भी आदेश दिए कि जब तक कुंआरा भिमाल न मिले तब तक कोई घर नहीं आओगे ।

सभी भाईयों ने गोंडवाना भू-भाग का गाँव-गाँव, कोना-कोना ढूँढते रहे ।

ग्राम समुदायों से उनकी जानकारी मिलती रही, किन्तु निश्चित ठौर-ठिकाना कूई नहीं बता पाते. ढूँढ़ते-ढूँढ़ते बरसों बीत गए ।

अंततः कुंआरा भिमाल अपनी विशेषज्ञता के आधार पर ग्रामजनो की सेवा, समर्पण, कर्तव्य परायण, व्यक्तित्व एवं समुदाय में अटूट श्रृद्धा भक्ति विश्वास के रूप में उन्हें मिला ।

अपने भाईयों के आगमन का कारण समझने में उन्हें देर नहीं लगी,सभी भाईयों द्वारा माता-पिता का संदेश बताकर उन्हें घर वापस चलने का आग्रह किया गया ।

कुंआरा भिमाल संदेश सुनकर चिंतित हो उठा,एक तरफ माता-पिता का पुत्र स्नेह के लिए डबडबाई आँखों का इन्तजार तथा दूसरी ओर ग्रामजनों की सेवा, कर्तव्य परायणता से दूर होने की स्थिति का दुख उन्हें सता रहा था ।

चिंतन मनन कर उन्होंने अपने भाईयों एवं ग्राम समुदायों को प्राकृतिक आध्यात्म, जन्म-मृत्यु, सुख-दुख, परिवार, समाज, संस्कृति, समाजसेवा आदि की मानव जीवन में महत्व एवं उपयोगिता के संबंध में उपदेश देते रहे ।

उनके जीवन उपदेशों और विचारों के सागर में डूबकर भाईयों के सांसारिक मोह माया भी धुल गए और वे भी गाँव-खूटों के किनारों में बैठकर अपनी-अपनी विशेज्ञता अनुसार कूईतुरों की विभिन्न प्रकार की सेवाओं में लग गए और सभी भाई अंततः घर वापस नहीं लौटे ।

इनमे से एक भाई गाँव का "ठाकुर देव" एक "खीला मुठवा" एक गाँव के मेढ़ो/सरहद/नार से गाँव का रखवाला, पहरा देने वाला, पाट-पीढ़ा करने वाला "कुंआरा भिमाल" आदि जिनकी मान्यता अनुसार आगे उल्लेख किया गया है ।

कई वर्ष बीत जाने तथा उन ६ भाईयों के घर वापस नहीं लौटने पर उनके माता-पिता फिर चिंतित होकर सभी बच्चों के बारे में सोचने लगे,उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे कहाँ निकाल गए । अब क्या करें ?

माता-पिता बच्चों की याद मे बेचैन हो उठे,उनकी आँखें बार-बार बाहर निहार रही थीं,उनकी आँखे अपने बच्चों को देखने के लिए तरस गईं,सभी बहनों मे उदासी छा गई ।

कई दिनों बाद माता-पिता ने पुनः निर्णय लिया और अपने पांचो बेटियों को सभी भाईयों को ढूँढकर लाने का आदेश दिए और यह भी आदेश दिए कि जब तक उनके सभी भाई उन्हें नही मिल जाते तब तक वे घर वापस न आयें ।

आदेश का पालन करने के लिए सभी पांचो बहिनें उन्हें ढूँढने निकल पड़े ।

पांचो बहिनें गाँव-गाँव खोजते रहे किन्तु उनकी स्थिरता कोई नहीं बता सकता था ।

महीनों कूजने के बाद उन्हें मिल गए,मिलने के पश्चात बहनों के सामने आई और वही उपदेश मिला जो भाईयों को मिला था. उपदेश पाकर सभी बहनें गाँव के विभिन्न खूटों, ठौर-ठानों मे स्थित होकर अपनी-अपनी विशेषज्ञता अनुसार कोईतुरों की सेवा मे लीन हो गए और अंततः घर वापस नहीं लौटे ।

इन्ही पांच बहनों में से सबसे छोटी बहन "खेरमाई" कोईतुरों की सेवा और रक्षा के लिए प्रसिद्धि प्राप्त की, जिसके कारण आदिकाल से आज तक आदिवासी समाज श्रृद्धा पूरित भाव से "खेरमाई" की पूजा करते हैं ।

खेरमाई/खेरोमाई को ग्राम/गावँ खूट की प्रथम माता माना जाता है ।

प्रथमतः गावँ माता के रूप मे आदिम समुदाय द्वारा पूजे जाने वाली खेरमाई/खेरोमाई अर्थात गाँव की रक्षा, सुख, समृद्धि प्रदान करने वाली माता की स्थापना ग्राम के मध्य भाग में स्थित अधिकतर बड़, पीपल, महुआ प्रजाति के जीवनदायिनी विशाल वनस्पति/वृक्ष (झाड़) के मूल में किए जाने की मान्यताएं मिलती हैं ।

इन प्रजातियों के वृक्ष सुगमता से ग्राम के मध्य या आस-पास नहीं पाए जाने की स्थिति में अन्य वृक्षों में भी "खेरमाई"की स्थापना की जाती है ।

खेरमाई के साथ मान्यता अनुसार अनेक जीवीय संसाधनों की सुरक्षा, रक्षा करने वाली माताएं एवं देवताओं -"अगुवानी (हिरवा), अन्नपूर्णा/पंडरी/पुगुर माता (विविध अन्न), पंचतत्वों के प्रतीक देवताएं आदि की स्थापना की जाती हैं ।

ग्राम के ग्राम देवताओं, खेत-खार, खरही-खानिहाल, जंगल-हार, नदिया-नरवा, ताल-पनघट, कुआं-बावली, पाट-पीढ़ा, रस्ता-बाट, डोंगर-घाट आदि अनेक स्थानों पर स्थापित हैं, जिनका गाँव के रक्षक देवी-देवताओं के रूप में ग्रामवासी वर्ष के विभिन्न कर्मप्रधान अवसरों पर पूजा करते हैं ।

प्रतीक के रूप में माताओं के धारित विभिन्न रंगों के कुल/कुटुंब के वंशध्वज लगे सल्ले-गांगरे स्वरुप कुंवारी लौह धातु/बांस के बने विभिन्न त्रिमार्गी बाना/शूल में लगे होते हैं ।

कई स्थानों में पूजा हेतु चौक-चौरा आदि बनाए जाते हैं,कहीं कुछ भी प्रतीक भी नहीं मिलते ।

पूजा के समय पूजा स्थान का सफाई कर लिया जाता है,इनके अलावा किसी अन्य देवी-देवताओं की मूर्ती की स्थापना व पूजा का विधान नहीं मिलता ।

वर्तमान में गोंडवाना के अनेक पहाडों पर स्थापित एवं पूजे जाने वाली माताएं खेरोमाई के बावन लश्गर (पहाड़ों से गढों की रक्षा/सुरक्षा करने वाली/गढ़ माता) हिंगलाजनी, शारदा, दंतेश्वती, बम्लेश्वरी, महामाया, चंद्रहासनी, कोकासनी, शीतला, विमलेश्वरी, राजराजेश्वरी, रणचंडीका, तपेश्वरी, ज्वाला, बूढ़ी दाई, मनिया दाई, लंजकाई, चौरा देवी, मालादेवी, मरही माता आदि बताए गए हैं ।

इन सभी में सगा-सम्बन्धी, रिश्तेदारी की मान्यताएं गोंडी गण-गाथाओं में मिलती हैं ।

(२) ठाकुर देव

पूर्व उल्लिखित नांगा बैगा-नांगा बैगिन के ७ पराक्रमी पुत्रों, जो सबसे बड़े पुत्र कुंआरा भिमाल की खोज में निकले थे, उनमे से एक ठाकुर देव (जाटवा) है ।

माना जाता है की ठाकुर देव बीज परीक्षण, भूमि उर्वरा परीक्षण, जल, कीट पतंगी गुण-धर्म के ज्ञाता थे,

जिन्होंने ग्राम के मानव समुदाय को फसल जीवनचक्र के ज्ञान के द्वारा अधिक अन्न-धन उपजाकर समृद्धि हासिल करने का मार्ग बताया ।

इसलिए ग्राम देवी देवताओं की मान्यता अनुसार बिदरी मनाकर बीज सूत्र/बोए जाने वाले अन्न बीज का अंश चढाकर बीज की रक्षा, फसलों की कीट-पतंगों से रक्षा, भूमि उर्वरा, हवा, जल सान्द्रता/समन्वय आदि प्रकृतिगत वैधानिक रक्षा की कामना पूर्ति के लिए कृषि ग्राम जीवन में ठाकुर देव की पूजा की जाती है ।

ठाकुर देव की स्थापना भी महुआ, आम, नीम आदि मान्य पेड़ों पर ही प्रकृतिगत सांस्कारिक विधानपूर्वक किया जाता है,

यह ग्राम का ठाकुर और ग्राम देवों मे प्रमुख है ।

(३) खीला मुठवा

ग्राम जीवन में आदिवासियों के जीवन निर्वाह के साथी पशु-पक्षी, गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुकरी-मुर्गी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

बैलों के माध्यम से कृषि कार्य किए जाते हैं तथा गाय, भैंस, भेड़, बकरी से दूध उत्पादन किया जाता है ।

इन पशुओं से परिपूर्ण परिवार समृद्ध परिवार कहलाता है,ये मानव सहयोगी पशु-पक्षी धन के प्रतीक माने जाते हैं ।

इन्हें चारागाह में ले जाने के पूर्व ग्राम के बीचों-बीच या किनारे निर्धारित एक सामूहिक गौठान में रखा जाता है ।

इसी सामूहिक गौठान के पास ही खीला मुठ्वा की स्थापना की जाती है, ऊपर वर्णित पांच भाईयों में से एक भाई "खीला मुठ्वा" (मुकेशा) के रूप में इसकी मान्यता मिलती है, जो पशु-पक्षियों की प्रकृति के जानकार, संरक्षक और वैधक कार्य से परिपूर्ण था.

इन्होंने आदिम मानव को पशुओं की प्रकृति, संरक्षण एवं व्यावहारिक जीवन में उनकी उपयोगिता का ज्ञान प्रदान कर जीवन में समृद्धि प्राप्त करने का संदेश दिया ।

इस आधार पर खीला मुठवा ग्राम पशुओं के संरक्षक, रोग-दोष से मुक्ति, जंगली जानवरों, कीट-पतंगों से सुरक्षा, कृषि कार्यों में उपयोग में लाई जाने वाली औजारों का निर्माण एवं सुरक्षा करने वाला देव माना जाता है ।

इसलिए इन्हें ग्राम के शमूहिक गौठान के पास ही स्थापित किया जाता है,खीला मुठावा देव को भी किसी विशाल वृक्ष-सेमल, महुआ, नीम आदि में (मान्यता अनुसार) स्थापित किया जाता है ।

(४) मेढ़ो देव

गावँ की सरहद में रहकर १० दिशाओं में सुरक्षा कवच बनकर गावँ की रक्षा करने वाला देव "मेढ़ो देव"कहलाता है.

उपरोक्त ५ भाईयों में से प्रथम महाबली/शक्तिशाली, हवा, बिजली, बादल, पानी, तूफान, वर्षा, प्रकृति के जानकार, तंत्र-मंत्र, झाड़ा-फूँका, वैध्य कला में पारंगत, मढ़िया के रखवाला "भिमाल पेन" है ।

इसे "नार" अर्थात ग्राम की सरहद का रखवाला "नारसेन" देव भी कहा जाता है ।

इसे ग्राम की सरहद पर स्थित पेड़, चट्टान, पत्थर आदि में स्थापित किया जाता है,माना जाता है की नारसेन देव ग्राम की दशों दिशाओं की सरहद से ग्राम में प्रवेश करने वाले विपत्तियों को रोकने की क्षमता भिमाल पेन में है ।

इसलिए वह अपने भाई-बहनों (ग्राम देवी देवताओं) तथा ग्रामजनों की सरहद में रहकर हर मुसीबत से रक्षा करने वाला देव माना जाता है ।

कुंआरा भिमाल सबसे बड़े पुत्र/भाई के रूप मे स्थापित हुए,इनके अलावा शेष भाई-बहन भी ग्रामसेवा, जनसेवा में ग्राम के अनेक खूट, पाट, ठानों, ताल, तरिया, पनघट, खेत-खानिहाल में मान्यता अनुसार विराजमान हैं, जो आगे शोध का विषय है।

क्षेत्रीय बोली-भाषा के आधार पर इन ग्राम देवी-देवताओं के नाम के उच्चारण में अपभ्रंस हो सकता है, किन्तु इनकी स्थापना का उद्देश्य ग्रामवासियों तथा उनके जीवन रक्षक विभिन्न संसाधनों की सुरक्षा, रोग-दोष, कलह, हिंसक जानवरों से स्वयं तथा पालतू पशु-पक्षियों की सुरक्षा, कीट-पतंगों से फसलों की सुरक्षा, प्राकृतिक प्रकोप से सुरक्षा तथा सुखी एवं समृद्ध जीवन की प्राप्ति के लिए की जाती है ।

इनकी स्थापना एवं पूजा का प्रकृतिमूलक विधान ग्राम जीवन का गौरव है ।

(III) पूर्वज मूलक संस्कृति

पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि गोंड आदिवासी समुदाय अपने पूर्वजों की पवित्र आत्मा को ही देवी-देवता (माता-पिता) के रूप में घर में स्थापित कर पूजा करता है ।

माता-पिता, पूर्वजों से बढ़कर उनका कोई और भगवान नहीं है,अपने पूर्वजों की पवित्र आत्मा को अपने घर के देवी-देवता के रूप मे स्थापित किया जाना तथा उनकी नित पूजा करने का विधान केवल आदिवासी संस्कृति मे ही मिलता है ।

प्रतिदिन का भोजन पहले अपने पूर्वजों को अर्पित करता है, उसके पश्चात वह स्वयं भोजन करता है ।

अन्य समुदाय वर्ष मे केवल एक दिन पितरों की पूजा करता है और भोग चढ़ाता है,इस प्रकृति मे पैदा होने वाला भौतिक शरीर अंत मे पंचतत्वों मे विभक्त होकर प्रकृति मे विलीन हो जाता है ।

उत्पत्ति और अंत प्रकृति का विधान है,इस विधान से बढ़कर और कोई सत्य नहीं है,इसीलिए आदिवासी समुदाय के आध्यात्म एवं संस्कृति मे इसी सास्वत प्राकृतिक शक्ति की पूजा "प्रकृति पूजा" के रूप मे मिलती है ।

इसी आध्यात्म और संस्कृति के आधार पर आदिवासी समाज मूर्तिपूजक कादापी नहीं है ।

भौतिक सत्ता की जमीन पर कदम रखने वाले आदिवासिजनों को अपनी असली जीवन संस्कृति

पर लौट आने की जरूरत है ।

आदिवासियों की सामाजिक रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल तथा संस्कृति दुनिया की किसी भी संस्कृति से न ही धूमिल है और ना ही खराब है ।

आदिवासी संस्कृति आडंबरपूर्ण आधुनिक रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों से परिमार्जित नहीं है, बल्कि सदियों-सदी से प्रकृति के संसाधनों के साथ मानवीय नैतिक व सांस्कारिक जीवन मूल्यों को सहेजने का एक सार्थक विधान है ।

जिसमे प्राकृतिक शक्ति (Netural Power) नीहित है ।

इसी प्राकृतिक शक्ति में नीहित जीवनशैली से आदिवासियों को प्राप्त चैतन्य शक्ति के कारण आज प्रकृति एवं उसकी संस्कृति विद्दमान है, जो किसी और समुदाय में नहीं मिलता ।

पढ़े लिखे आदिवासी समुदाय के लोग अपनी एवं दुनिया की महान समझी जाने वाली पवित्र आदिवासी संस्कृति को कुरूपता प्रदान कर रहे हैं ।

तथा दुनिया की आडंबरपूर्ण कृत्यों को सहेजकर आदिवासीपन एवं आदिवासी सांस्कृतिक जीवन के विनाश का घोर षडयंत्र रच रहे हैं ।

इसका परिणाम वर्तमान जीवन में विभिन्न स्वरूपों में मिलना/प्रकट होना शुरू हो चूका है,

चाहे वह सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, राजनीतिक व अन्य कोई दूरदृष्टिता अथवा उच्चस्तरीय

हितलाभ प्राप्त करने की दृष्टि से हो सकता है ।

आधुनिक भौतिक युग में यह कहा जाय कि आदिवासियों को भौतिक सत्ता की कुर्सी पर बिठाने

वाली शक्ति उसकी संस्कृति है ।

संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज के आधार पर ही आदिम समुदाय को संवैधानिक संरक्षण प्रदान किया गया है,

उसी संस्कृति को समुदाय के पढ़े-लिखे लोग आडंबरपूर्ण और मिथ्या करार देते हैं ।

जिस थाली में खाया उसी में छेद करने वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं, जिस संस्कृति ने आधुनिक सुख, सुविधा एवं सम्पन्नता प्रदान की उसी संस्कृति को ठोकर मारना ऐसे आदिवासियों को महंगा पड़ सकता है ।

आज भी समय है तथा वक्त की पुकार है कि आदिवासी जीवन की मुख्य धारा से दूर गया हुआ आदिवासी अपने वास्तविक जीवन शैली एवं संस्कृति की धरा पर वापस लौट आए अन्यथा इसका विनाशकारी दुष्परिणाम सम्पूर्ण आदिवासी समाज को भुगतना पड़ेगा ।

इस असामाजिक, असांस्कृतिक एवं अमानवीय कृत्य के लिए आदिवासी समाज के सिर्फ और सिर्फ पढ़े-लिखे, शिक्षित लोग ही जिम्मेदार होंगे ।

Monday, 21 August 2017

भारतीय वीरांगनाएँ

श्रेणी:भारतीय वीरांगनाएँ  

History of Gond

गोंड  

गोंड
गोंड मध्य प्रदेश की सबसे महत्त्वपूर्ण जनजाति है, जो प्राचीन काल के गोंड राजाओं को अपना वंशज मानती है। यह एक स्वतंत्र जनजाति थी, जिसका अपना राज्य था और जिसके 52 गढ़ थे। मध्य भारत में 14वीं से 18वीं शताब्दी तक इसका राज्य रहा था। मुग़ल शासकों और मराठा शासकों ने इन पर आक्रमण कर इनके क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और इन्हें घने जंगलों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में शरण लेने को बाध्य किया।

आबादी

गोंडों की लगभग 60 प्रतिशत आबादी मध्य प्रदेश में निवास करती है। शेष आबादी का अधिकांश भाग 'संकलन', आन्ध्र प्रदेश एवं उड़ीसा में बसा हुआ है। गोंड जनजाति के वर्तमान निवास स्थान मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्यों के पठारी भाग, जिसमें छिंदवाड़ा, बेतूल, सिवानी और माडंला के ज़िले सम्मिलित हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी दुर्गम क्षेत्र, जिसमें बस्तर ज़िला सम्मिलित है, आते हैं। इसके अतिरिक्त इनकी बिखरी हुई बस्तियाँ छत्तीसगढ़ राज्य, गोदावरीएवं बैनगंगा नदियों तथा पूर्वी घाट के बीच के पर्वतीय क्षेत्रों में एवं बालाघाट,बिलासपुरदुर्गरायगढ़रायसेन और खरगोन ज़िलों में भी हैं। उड़ीसा के दक्षिण-पश्चिमी भाग तथा आन्ध्र प्रदेश के पठारी भागों में भी यह जनजाति रहती है।

निवास

गोंड जनजाति का निवास क्षेत्र 17.46 डिग्री से 23.22 डिग्री उत्तरी अक्षांश और 80 डिग्री तथा 83 डिग्री पूर्वी देशांतरों के बीच है।

शारीरिक गठन

गोंड जनजाति के लोग काले तथा गहरे भूरे रंग के होते हैं। उनका शरीर सुडौल होता है, किंतु अंग प्राय: बेडौल होते हैं। बाल मोटे, गहरे और घुंघराले, सिर गोल, चहरा अण्डाकर, आँखें काली, नाक चपटी, होंठ मोटे, मुँह चौड़ा, नथुने फैले हुए, दाढ़ी एवं मूछँ पर बाल कम एवं क़द 165 सेमी. होता है। गोंडों की स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में क़द में छोटी, शरीर सुगठित एवं सुन्दर, रंग पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम काला, होंठ मोटे, आँखें काली और बाल लम्बे होते हैं।

भोजन

गोंड अपने वातावरण द्वारा प्रस्तुत भोजन सामाग्री एवं कृषि से प्राप्त वस्तुओं पर अधिक निर्भर रहते हैं। इनका मुख्य भोजन कोदों, ज्वार और कुटकी मोटे अनाज होते हैं, जिन्हें पानी में उबालकर 'झोल' या 'राबड़ी' अथवा 'दलिया' के रूप में दिन में तीन बार खाया जाता है। रात्रि मेंचावल अधिक पसन्द किये जाते हैं। कभी-कभी कोदों और कुटकी के साथ सब्जी एवं दाल का भी प्रयोग किया जाता है। कोदों के आटे से रोटी[1] भी बनाई जाती है। महुआ, टेंगू और चर के ताज़े फल भी खाये जाते हैं। आम, जामुन, सीताफल और आंवला, अनेक प्रकार के कन्द-मूल एवं दालें व कभी-कभी सब्जियाँ भी खाने के लिए काम में लाये जाते हैं।

वस्त्राभूषण

आरम्भ में गोंड जनजाति के लोग या तो पूर्णत: नंगे रहते थे अथवा पत्तियों से अपने शरीर को ढंक लेते थे। अब 3-4 दशकों से वे वस्त्रों का प्रयोग करने लगे हैं, किंतु वस्त्र कम ही होते हैं। अधिकांशत: पुरुष लंगोटी से अपने गुप्तांगों एवं जांघों को ढंक लेते हैं। कभी-कभी सिर में एक अंगोछे के प्रकार का कपड़ा भी बांध लेते हैं। कुछ लोग पेट और कमर ढंकने के लिए अलग से पिछौनी लपेट लेते हैं। स्त्रियाँ धोती पहनती हैं, जिससे शरीर के ऊपर और नीचे का भाग ढंक जाता है। ये चोली नहीं पहनतीं। छातियाँ खुली रहती हैं। सर्दियों में शरीर को ढंकने के लिए ऊनी कम्बल व मोटे टाट का कपड़ा काम में लाया जाता है।

पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऊपर जायें गोदाला

संबंधित लेख

MY FACEBOOK https://www.youtube.com/channel/UCMN3G8CcYx-vCgS4nyzQtKA

जानिए अपनी राशि के अनुसार किस रंग से खेलें होली

Govind Thakur Narsinghpur (M.P.) जानिए अपनी राशि के अनुसार किस रंग से खेलें होली वैसे तो हर त्यौहार का अपना एक रंग और महत्व होता है, लेक...